द ग्रेट गेम (अफगानिस्तान)
सभ्यताओं के कब्रगाह के नाम से मशहूर अफगानिस्तान आज जहां पर तालिबान सत्ता में काबिज़ है। इस क्षेत्र की सत्ता की लालसा 19 वी शताब्दी के दशक से दिखलाई पड़ रही थी लेकिन कोई भी महाशक्ति काबुल में अपना झंडा नहीं फहरा सकी। सत्ता की लालसा के लोभ में काबुल रणभूमि का क्षेत्र बनता चला गया। काबुल में कई महाशक्तियां आई और उन्हें वहां से खाली हाथ ही लौटना पड़ा
19 वी सदी का काबुल
ब्रितानी हुकूमत जब कभी उसका सूर्य अस्त नहीं होता था। तब उसे काबुल में हार का मुंह देखना पड़ा। लार्ड ऑकलैंड और लिटन ने रूस के डर से काबुल को अपने हाथों में लेना चाहते थे। लेकिन ब्रितानी हुकूमत कबीलाई समाज को तोड़ नहीं पाई। 1860 के दशक के बाद जॉन लारेंस ने masterly inactivity की नीति लाई जिसका अर्थ था कि जब तक रूस अफगानिस्तान में अपना पैर नहीं पसारेगा तब तक ब्रितानी हुकूमत भी कोई एक्शन नहीं लेगा लेकिन ब्रिटिश हुकूमत 1893 में जब उसको लगने लगा अफगानिस्तान उसके हाथ नहीं आएगा तो उसने डूरंड लाइन खीच दी इस लाइन के माध्यम से उन्होंने पश्तूनो को अलग-थलग करने का प्रयास किया। जिससे काबुल कभी एकजुट न हो सके।
1880 के वर्ष में अब्दुल रहमान पश्तून लोगों को जो कि अफगानिस्तान में 42 फ़ीसदी है। उनको बॉर्डर के क्षेत्रों में बसाना शुरू किया और बीच में ताजिक, हजारा, उज्बेक जनजातियों को बसाया अब्दुल रहमान चाहता था कि जब कोई बाहरी शत्रु उनकी सीमा में प्रवेश करें तो सबसे पहले उनका सामना पश्तून से होगा क्योंकि पश्तून लड़ाके थे।अपनी भूमि के लिए मर मिटने को तैयार रहते थे।
20 वी सदी का काबुल
भारत और पाकिस्तान दो नए देश बन जाते है तब अफगानिस्तान के लिए समस्या का सबब और अधिक बढ़ जाता है। 1978 से 79 के बीच में ईरान में इस्लामिक क्रांति होती है। अमेरिका में तनाव बढ़ रहा होता है और जरनल जिया ने जुल्फिकार को फांसी दे दी होती है। इस समय का घटनाक्रम अपने आप में बहुत ही चिंताजनक था और काबुल की धरती शायद इन समस्याओं को नहीं समझ पाई और 1989 के वर्ष में अफगानिस्तान में सोवियत संघ का प्रवेश होता है। सभ्यताओं के इस धरती सोवियत संघ को खाली हाथ ही लौटता पड़ा।
तालिबान की उत्पत्ति का इतिहास 1990 के दशक की शुरुआत से जुड़ा है, जब सोवियत-अफ़ग़ान युद्ध की समाप्ति के बाद नई अफ़ग़ान सरकार देश में नागरिक व्यवस्था बनाने और कबीलाई सरदारों को वश में करने में नाकाम रही. अराजकता की स्थिति में आम अफ़ग़ान नागरिक ‘मुज़ाहिदीन’ की धार्मिक बयानबाज़ी के प्रति आकृष्ट होने लगे. साल 1994 तक, कंधार के एक गांव में मदरसे से जुड़े ‘मुज़ाहिदीन’ लड़ाकों को लोगों का समर्थन हासिल होने लगा और क्षेत्र में शांति और व्यवस्था स्थापित करने के लिए ये कबीलाई सरदारों को युद्ध में हराने में सक्षम थे और ऐसे मुज़ाहिदीन समूहों को ही तालिबान के रूप में जाना जाने लगा, जिसने दो वर्षों के भीतर काबुल पर कब्ज़ा कर लिया और अफ़ग़ानिस्तान के एक बड़े हिस्से पर नियंत्रण स्थापित कर लिया। यही से शुरू होती है तालिबान जैसे संगठन की
21 वी सदी का काबुल
तालिबान की लड़ाई अमेरिका से सीधी नहीं थी बस जब तालिबान सत्ता पर आया तो उसने ओसामा बिन लादेन को अपने यहां शरण दी हुई थी। क्योंकि पश्तूनो की एक रूल बुक होती है। जिसमे 12 नियमों की अचार संहिता होती है। वो अपने लोगो की रक्षा करना अपना कर्तव्य समझते हैं।
इसको लेकर अमेरिकी सरकार ने 2001 में एड्रोएरिंग ऑपरेशन शुरू किया जिसमें तालिबान और अलकायदा को जड़ से समाप्त करने का सकल्प किया गया था। अमेरिकी सरकार अफगानिस्तान में प्रवेश तो करती है लेकिन वहीं तालिबान से जिसको खदेड़ने आई थी बाद में समझौता करके वापस जाना पड़ता है। ट्रंप गवर्नमेंट पहले तो तालिबान से बात नहीं करना चाहते थे लेकिन बाद में उसी तालिबान से उन्होंने बातें किया। इस बार तालिबान सत्ता पर ज्यादा रक्त न बहा कर सत्ता पर काबिज हो गया।
वर्तमान स्थिति और तालिबान 2.0
वर्तमान समय में तालिबान जो मानवीय मूल्यों की बात करता था। वह सब धरे के धरे रह गए उसने कहा कि हिजाब पहनकर ही महिलाएं कहीं जायेगी। रोजगार में महिलाओं की भागेदारी में कमी आई है। बंदूक की नोक में काम कराया जा रहा है। लोग डरे सहमे हुए है। लोगों के बीच बेहतर जीवन की लालसा के कारण आसपास के देशों में शरणार्थी समस्या भी बढ़ती चली जा रही है। हाल ही में भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल और तालिबान नेताओं के बीच में वार्ता हुई। जिसमें भारत सरकार ने तालिबान की स्थिति का जायजा लेते हुए कुछ रसद सामग्री पहुंचाने का काम किया है।
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