सिंधु सभ्यता में प्रकृति ईश्वर के रूप में थी।आज भी भारतीय समाज में यह दिखलाई पड़ता है। वही प्रथ्वी जिसने मनुष्य को जीना सिखाया मनुष्य आज उसी का दोहन शुरू कर दिया है। तो पृथ्वी अपना प्रलय रूप धारण करके सामंजस्य की स्थिति का निर्माण करना भी जानती है।इंसान रूपी जानवर जब अपनी महत्वाकांक्षा के चलते सभी को अपना निवाला बनाता चला जा रहा है। तो जल, जंगल इससे दुभर नहीं है।
संयुक्त राष्ट्र की (मेकिंग पीस विद नेचर रिपोर्ट) कहती है "प्रकृति के साथ सामंजस्य बैठाकर ही इंसानों के लिए बेहतर कल बनाया जा सकता है"
आज विश्व पर्यावरण दिवस है पूरा विश्व बड़े ढोल तमाशे के साथ इस दिवस को मना रहा है। यह एक दिवसीय त्यौहार पूरे वर्ष मनुष्य जाति को मनाना चाहिए ताकि बेहतर कल का निर्माण हो सके।
इस वर्ष की थीम (सिर्फ एक प्रथ्वी) 1972 में पर्यावरण को बचाने के लिए स्टॉकहोम सम्मेलन आयोजित हुआ था ।दो वर्ष के बाद 1974 में 119 देशों ने इस सम्मेलन में भागीदारी करकर पर्यावरण बचाने की मुहिम में साझा प्रयास की बात की थी। जिसमें इनकी थीम सिर्फ एक प्रथ्वी ही थी। तो वही थीम के तले आज के दिन में 50 वीं वर्षगांठ के मनाई जा रही है इस वर्ष उसी( सिर्फ एक प्रथ्वी) थीम को चुना गया है।
जब समाज में उपभोक्तावादी संस्कृति, बाजारवाद, व्यक्तिवाद अपनी पराकाष्ठा में पहुंच चुका है। लोग बेहतर भविष्य की परिकल्पना के चलते पर्यावरण का दोहन करते चले जा रहे हैं।
डाउन टू अर्थ की एडिटर सुनीता नारायण कहती है भारत के लिए सबसे बड़ी समस्या पानी की किल्लत होने वाली है। कहीं पर सूखा तो कहीं पर बाढ़ की समस्या देखने को मिलेगी। फिर धीरे धीरे समस्याओं का अंबार आने वाला है।
वही बात करे एशिया की तो पर्यावरण के दुष्प्रभाव के कारण 1.6%जीडीपी का नुकसान इन देशों को उठाना पड़ रहा है।वही विकसित देशों की बात करे तो इन्हे मात्र 0.3%नुकसान उठाना पड़ रहा है। यह विरोधाभाष है।क्योंकि औद्योगिक क्रांति करके इन देशों ने अपना जीवन स्तर तो सुधार लिया लेकिन अपने लाभ के चलते इन्होंने विकासशील देशों के समक्ष समस्या पैदा कर दी।
पर्यावरण बनाम विकास
हाल ही में विश्व आर्थिक मंच की बैठक दावोश में संपन्न हुई जहां पर भारत को वैश्विक जलवायु परिवर्तन का मुखिया के रूप में चुना गया। क्योंकि भारत उभरती हुई अर्थव्यवस्था है। अभी कुछ दिन पहले प्रधानमंत्री मोदी ने ग्लास्गो में संपन्न हुई cop 26 की बैठक में पंचामृत नामक एक स्टेजजी जारी की थी। किस प्रकार इसको नियंत्रित किया जाय।
औद्योगिक क्रांति के बलबूते यूरोप और बड़ी महाशक्ति जो आज महाशक्ति के नाम से जानी जाती हैं। उन्होंने कभी पर्यावरण का दोहन अपनी क्षमता से अधिक किया था ।उन्होंने सिर्फ अपने क्षेत्र में ना रहकर विश्व के अन्य देशों से भी अपने लाभ के लिए पर्यावरण का दोहन किया था। आज जब पर्यावरण बचाने की बात आती है ,तो बड़ी महाशक्ति वाले देश बातें बड़ी-बड़ी करते हैं लेकिन काम शायद ही कहीं दिखलाई पड़ता है।
आज हमें भी पर्यावरण की चिंता सता रही है लेकिन क्या हम अपने आप को विकसित ना बनने दें। जहां तकनीकी और पैसे देने की बात आती है तो बड़े-बड़े देश अपने आप को पीछे कर लेते हैं। आप तकनीकी ट्रांसफर नहीं करना चाहते हैं, और आप अपने देश का लाभ देखते हुए नीति के मसौदे भी बदलवाना चाहते हैं,तो शायद पर्यावरण बचाने की मुहिम निरर्थक साबित दिखाई पड़ती है।
आप विकसित देश बार-बार चिल्लाते हैं। पर्यावरण का दोहन विकासशील देशों में किया जा रहा हैं लेकिन हाल में आईपीसीसी की रिपोर्ट यह बताती है कि विकासशील देशों का कार्बन उत्सर्जन में योगदान मात्र 3.1 प्रतिशत है।
आज 5जून को भारत के प्रधानमंत्री के द्वारा लाइफ आंदोलन की शुरुआत की जा रही है। जिसमें लोग अपनी जीवन पद्धति को बदलने का प्रयास करेंगे शायद इससे पर्यावरण के दोहन को कुछ रोका जा सके। इस समस्या से निजात पाने के लिए सभी देशों को एकजुट आकर एक मसौदे का निर्माण करना पड़ेगा जो कि बाध्यकारी हो। विश्व व्यवस्था में मानव रूपी राक्षस की जीवन पद्धति में बदलाव लाने का प्रयास करना पड़ेगा। यह समस्या किसी एक देश एक मनुष्य की नहीं है, पूरे विश्व की है, इसके चलते वैश्विक बिरादरी को एकजुट होकर कंधे से कंधे मिलाकर इस समस्या से लड़ना होगा। जिससे बेहतर जीवन की आस लगाई जा सके।
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