वसीयत :
यह कहानी है दो भाईयों के बीच की कैसे शहद से भी ज्यादा मीठे रिश्ते में जहर के बीज घुल जाते है, पता भी नही चलता बड़ा भाई मानवेंद्र (बदला हुआ नाम) छोटा भाई उससे पांच साल छोटा था। बड़ा भाई छोटे भाई को हर कदम में साथ देता था। स्कूल से लेकर बाल कटाने तक नहर में नहाने से लेकर पिताजी के डंडे खाने तक।
फिर कुछ समय बाद बड़े भाई शादी होती है, और छोटे भाई की भी। जो संयुक्त परिवार था। उस परिवार में दो नए सदस्यों का आगमन होता है। कुछ सालों तक तो यह चीजें बहुत अच्छी तरीके से चलती रही। लेकिन जब भाइयों के भी बच्चे बड़े होकर अपने पिताजी का व्यापार देखने के लिए आगे आए। तब यह माया का जाल सताने लगा और दो भाइयों के बीच यह माया ने जहर का काम किया।
जो दो भाई साथ खाते थे, आज एक दूसरे से बात भी नहीं करते। हद तब होती है। जब बड़े भाई ने अपने बेटे की शादी में छोटे भाई को बुलाया तक नहीं, छोटा भाई मन मसोस कर बड़े भाई का सिर्फ एक प्यार से बुलाना ही स्वीकार करके चला जाता। पर बड़े भाई ने माया के जाल से उबरने का प्रयास ना किया, और छोटे भाई को और अधिक कांटों के बिस्तर पर लिटा दिया। शायद कुछ रिश्ते मधुर हो सकते थे, लेकिन इस कृत्य ने रिश्तो को तिलांजलि दे दी।
माया ऐसा जहर है जो सिर्फ भागने के लिए प्रेरित करता है। लेकिन कभी किसी को प्रेम, सद्भाव, स्नेह आदि इससे प्राप्त नहीं हुआ। उपभोक्तावादी संस्कृति में भारतीय मूल्यों को तोड़कर माया के जाल में ऐसा उलझाया है। जिससे उबरना शायद ही किसी के लिए मुमकिन होगा।
यह कहानी हर परिवार, घर, समाज मैं देखने को मिलती है। जिस ढोल नगाड़े से प्यार की शुरुआत होती है। वही बाद में दर्द, पीड़ा की दुकान बन जाता है। जो साथ में रोटी खाने वाले आज एक दूसरे को देखना भी नहीं पसंद करते हैं।
इस माया को बाटने के लिए पंचायतों का दौर शुरू होता है, और पंचों के द्वारा जो दो भाइयों की कमाई को , कागजों पर बाटकर फैला दिया जाता है। इन कागजों को समेटकर भाई अपने पास रखते है। क्योंकि अब वसीयत भाई के प्रेम से अधिक बड़ी हो गई थी। मामूली कागज का मूल्य प्यार के रिश्ते को तितर बितर कर देता है।
यह समस्या भारतीय समाज में अधिक दिखलाई पड़ती है। सयुक्त परिवार में जब से वसीयत नामक दानव आया है। यह रिश्तों को लील कर कटुता के बीज बोता है। अपने आगोश मे सब को समा लेता है।
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